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अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arvāñcaṁ tvā sukhe rathe vahatām indra keśinā | ghṛtasnū barhir āsade ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्वाञ्च॑म्। त्वा॒। सु॒ऽखे। रथे॑। वह॑ताम्। इ॒न्द्र॒। के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑। ब॒र्हिः। आ॒ऽसदे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:41» मन्त्र:9 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो (घृतस्नू) घृत अर्थात् जल को पवित्र करनेवाले (केशिना) बहुत केशों से युक्त (अर्वाञ्चम्) नीचे जानेवाले (त्वा) आपको (सुखे) सुख करानेवाले (रथे) सुन्दर वाहन और (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (आसदे) वर्त्तमान होने के लिये (वहताम्) पहुँचावें, उनको आप जानिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! दो अग्नियों से चलाये हुए वाहनों पर स्थित होकर नीचे ऊपर और तिरछे देश में जाकर आइये ॥९॥ इस सूक्त में विद्वान् मनुष्यों के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! यौ घृतस्नू केशिनाऽर्वाञ्चं त्वा सुखे रथे बर्हिरासदे वहतां तौ त्वं जानीहि ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्वाञ्चम्) योऽर्वागधोऽञ्चति गच्छति तम् (त्वा) त्वाम् (सुखे) सुखकारके (रथे) रमणीये याने (वहताम्) (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त (केशिना) बहवः केशा विद्यन्ते ययोस्तौ (घृतस्नू) यौ घृतमुदकं स्नातः शोधयतस्तौ (बर्हिः) अन्तरिक्षे (आसदे) आसादनीयाय ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या द्वाभ्यामग्निभ्यां चालितेषु यानेषु स्थित्वाऽध ऊर्ध्वं तिर्य्यग्देशं च गत्वाऽऽगच्छत ॥९॥ अत्र विद्वन्मनुष्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्येकाधिकचत्वारिंशत्तमं सूक्तं ४ वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! दोन प्रकारच्या अग्नीने चालविलेल्या वाहनात बसून निरनिराळ्या देशात जाऊन या. ॥ ९ ॥